21.6.15

लोहे का घर-२

ट्रेन में बैठे हैं। जौनपुर से बनारस। इस रुट में एक्सप्रेस ट्रेन खूब मिलती है। जब काम खतम हो स्टेशन आओ, कोई न कोई ट्रेन देर सबेर मिल ही जाती है। देर होने पर रोज के यात्री नहीं मिलते। अजनबियों से बतियाना पड़ता है। सवा घण्टे का सफर कब खत्म हो जाय, पता ही नहीं चलता। जो मजा बनारस बलिया पैसिंजर ट्रेन की 5 घण्टे की यात्रा में आता था वो मजा इसमें नहीं है।

मेरे सामने 5 अधेड़ यात्री बैठे हैं। कर्नाटक के हैं। घुमक्कड़ लगते हैं। काठमांडू, अयोध्या घूम कर अब काशी जा रहे हैं। कल देहरादून जाएंगे। जब मैं आया तो ये तास की तीन गड्डियाँ मिलाकर रमी खेल रहे थे। घर, परिवार छोड़ दो और मिलकर घूमने निकलो तो मजा ही मजा। उनका खेल खत्म हुआ। अब जीत-हार का हिसाब किताब कर रहे हैं। मैंने उन्हें सूर्योदय से पहले गंगा घाट घूमने की सलाह दी है। उन्हें सलाह अच्छी लग रही है मगर अमल करने वाले नहीं दिखते। वैसे भी जिसमे सुख मिले वही करना चाहिए। आखिर सुख की तलाश में ही तो घूम रहे हैं! भगवान इनका भला करे।

ट्रेन रुक गई। क्यों रुकी ? इसे ट्रेन का मालिक ही बता सकता है। एक्सप्रेस ट्रेन है, डबल रुट है, पहले से लेट चल रही है और किसी ने चेन पुलिंग भी नहीं की है, टेसन भी नहीं है मगर रुक गई तो रुक गई। बड़ी ठसक के साथ रुकी है। ऐसे रुकी है जैसे कोई धरमेंदर लाइन मार रहा हो और ये हेमामालिनी हों!

कल रात 10 बजे घर पहुँचे। नहाये, खाये, सो गए। खाते-खाते समाचार भी देखे। अब भूल गए क्या देखे थे। सुबह उठकर स्नान-ध्यान-नाश्ता के बाद फिर ट्रेन पर बैठ गए। फिर बेतलवा डाल पर। वह बेताल डाल से उतर कर बातें करता था। यह बेचैन ट्रेन में बैठकर बातें करता है। क्या फर्क पड़ता है!

ट्रेन सही समय पर चली है। हो सकता है सही समय पर पहुँचा भी दे। हम भी सही समय वाले हो जांय। सही समय पर होना बड़ा सुखद होता है। बहुत सी आत्माएं हैं ट्रेन में। सब मेरी तरह बेचैन नहीं हैं। आपस में बातें कर रहे हैं। खुश हैं कि ट्रेन आज सही समय पर है। खुश होने के लिए अधिक कुछ नहीं चाहिए। बस खुश मिजाज  मन चाहिये।

ताली बजाते हुए एक हिजड़ा आया है। हड़का रहा है-इज्जत से दे दे, इज्जत से! इज्जत से मांग कर सबकी बेइज्जती कर रहा है। न देने पर गाली दे कर चला गया। भेष एक नवयौवना का है, कर्म गुंडई है। एक गिरोह सा चलता है ट्रेन में। कभी-कभी तो मुझे इनके हिजड़े होने पर भी शक होता है। आप भी देख लीजिये। क्या यह हिजड़ा लगता है?


5 बज चुके हैं लेकिन धूप तेज है। ट्रेन की खिड़की से सीधे घुस कर जला रही हैं सूरज की किरणे मेरी उंगलियाँ पकड़ने आया था 50 डाउन, देहरा लेट थी पहले आ गई। बैठ गए ट्रेन में।

गर्मी से बेहाल हैं यात्री। प्यास से परेशान हैं बच्चे। कुरकुरे का पैकेट खोल कर खिला रहे हैं पापा। बोतल में है थोड़ा सा पानी। रोते बच्चे खुश हैं। कुरकुरे खतम होने के बाद अगला युद्ध पानी के लिए होगा।

जलालपुर टेसन में रुकी है ट्रेन। यहाँ एक मिनट के लिए रुकती है। चार बच्चों के पिता कूद कर गए हैं पानी लेने। ट्रेन चल दी। विजयी योद्धा की तरह हाथ में आधा बोतल पानी लेकर हँसते हुए आये बच्चों के पिता जी। देखते ही देखते चार बच्चों में खत्म हो गया पानी। छोटा बच्चा अभी भी मांग रहा है पानी। अगले टेसन में और पानी लाने का वादा कर रहे है बाबूजी। 

गजब का बहादुर परिवार है। चार छोटे बच्चों के साथ एक सप्ताह से घूम ही रहे हैं। मथुरा, वृन्दावन और वैष्णो देवी के बाद अब कलकत्ता जा रहे हैं। इनको देख कर एक बात यह समझ में आ रही है कि घूमने के लिए जेब में पैसा नहीं, जिगर में साहस और घूमने का मन चाहिए।


6 comments:

  1. इतनी गरमी में ट्रेन पर चलना ! सोचकर दिल सिहर उठाता है.

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  2. यही है अपना हिंदुस्तान

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  3. जीवंत रिपोर्ताज़ पांडे जी का। वाह !

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  4. जिगर में साहस, घूमने का मन और चंद छुट्टियाँ भी तो चाहिए :)

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  5. Exactly...ghumne ke liye jigar mein saahas aur ghumne ka man chaahiye...!

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