9.12.15

लोहे का घर-4

फेसबुक पोस्ट

Devendra Kumar Pandey
आज पता चला स्पेशल ट्रेन का कोई माई-बाप नहीं होता। पैसा भी अधिक लेते हैं और समय की कोई चिंता नहीं। सुबह आने वाली ट्रेन शाम को भी आ सकती है। सबसे बड़ी समस्या कि आप इसके लोकेशन को नेट पर ढूंढ नहीं सकते। सिर्फ स्टेशन पर खड़े हो अनाउंसमेंट सुनने के आलावा कोई चारा नहीं होता। कान खरगोश, नाक कुत्ता हो गया अपना। frown emoticon
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स्पेशल ट्रेन तो वाकई स्पेशल होती है। सुबह 6.30 में कानपूर से मुगलसराय आने वाली ट्रेन 10.30 तक नहीं आई तो पूछताछ काउंटर पर पूछा-भैया! मेरी स्पेशल ट्रेन है। पटना स्पेशल। अरे वही जहाँ नितीश जी फिर से मुख्य मंत्री बनने वाले हैं। कब आएगी? मेरे नेटवर्क पर तो कहीं दिखाई नहीं पड़ रही! पूछताछ काउंटर वाला बोला-आपके नहीं, मेरे नेट पर भी दिखाई नहीं दे रही है! सुबह 8 बजे चली थी अल्लाहाबाद से। कब आएगी और कब जायेगी कुछ पता नहीं। इसका कोई माई-बाप नहीं होता!!!
‪#‎हेप्रभु‬! मैं भी यही सोच रहा था! भाग कर पैसा वापसी काउंटर पर गया कि भैया मुझे कहीं नहीं जाना। मेरा पैसा वापस करो। साढ़े चार घंटे हो गए। काउंटर वाली मैडम ने लम्बी प्रक्रिया कराने के बाद बोला-टिकट तो कैंसिल हो जायेगा लेकिन वापसी रूपया शून्य बता रहा है कम्प्यूटर। नया नीयम आ गया है!
#हेप्रभु तू इतना बेईमान कैसे हो गया! स्पेशल ट्रेन के नाम पर डबल पैसा लिया, ट्रेन का पता नहीं और नहीं जाना चाहता तो पैसा वापसी के नाम पर ठेंगा दिखा दिया! बड़ा ठग व्योपारी है रे तू!



ट्रेन केंद्र की भले हो बिहार में सफर करते हुए ऐसा लगा कि हर सीट पर आम आदमी का कब्जा है। स्लीपर-जनरल एक समान। टी टी की अफसरी कोट के जेब में घुस जाती है। जनता एक दुसरे को बिठाने चढाने में भरपूर मानवीय सहयोग करती है। आपके पास बर्थ है तो राजा मत समझिये। आम आदमी के साथ आम आदमी बन शांति से यात्रा कीजिये। केला खाइये। बहुत सस्ता है 20 रूपया में 16। यह स्लीपर क्लास का डिब्बा है।
पापा ने मज़ाक में कहा ... 'यह मेरे बेटी नहीं है!' पाँच साल की बच्ची ने बिस्कुट खिड़की से बाहर फेंक कर माँ के आँचल में चेहरा छुपा लिया। बहुत देर बाद उसने अपनी गर्दन उठाई तो उसकी आँखों में कई मोती झिलमिला रहे थे। मैं बस डूब कर रह गया। मेरे हाथ में कैमरा था मगर तस्वीर नहीं खींच पाया। 2 दिन पहले ‪#‎ट्रेन‬ में देखी वो बिटिया याद आती है।

वे काफी वृद्ध थे। उनकी कमर और रीढ़ की हड्डी ऊपर से नीचे तक बेल्ट से कसी हुई थी। अपने से चल नहीं पा रहे थे । ‪#‎ट्रेन‬ में भयंकर भीड़ थी। जैसे तैसे उनके पुत्र ने उन्हे ट्रेन में चढ़ाया और सामने बर्थ के यात्री को अपना टिकट दिखा कर बोला-यह मेरी बर्थ है। बर्थ में सोया यात्री पहले तो झल्लाया फिर टिकट देख कर बोला-यह एस-5 है, आपकी बर्थ एस-3 में है!
अवाक पुत्र कभी पिता को देखता कभी अपने टिकट को। तब तक दूसरे यात्रियों ने टिकट देख कर कहा-घबड़ाइए मत हम आपके पिता जी को आपकी बर्थ तक पहुंचा देंगे तो उसकी जान में जान आई और देखते ही देखते दो चार यात्री वृद्ध को उठाकर, उनकी बर्थ पर लिटाकर हँसते हुए वापस आ गए ।
2 दिन पहले ट्रेन में देखी वह सहिष्णुता मुझे याद आती है।

पहले पहल ‪#‎ट्रेन‬ में छठ के मधुर गीत सुनाई पड़े तो खुशी से पलट कर आवाज को तलाशने लगा l वे दो महिलाएं थीं। हाथों में पीतल का सूप, सूप में ढेर सारे चिल्लर और दस के नोट! इन्हे देख अपने रोज के जौनपुर-बनारस मार्ग पर दिखने वाली महिला याद आ गई जो अपने साथ एक जवान लड़की को लिए यह कहते भीख मांगते प्रायः रोज दिख जाती है...'मेरी बेटी की शादी है, मदद साहेब!' फिर गीत के बोल से ध्यान हट गया। इसके बाद बिहार की लंबी यात्रा में कई ऐसे ही दृश्य दिखाई दिये। छठ के नाम पर पैसा मांगते मुस्टंडे भी दिखे और भोली भाली दिखने वाली महिलाएं भी। मेरे हाथ में कैमरा था। मुझे लगा ‪#‎ट्रेनमेंमांगनेवाले‬ बहुत हैं। मैं इनकी तस्वीरें खींचते-खींचते थक जाऊंगा फिर तस्वीर खींचने का विचार त्याग दिया।
कैमरे से खींची हो या दिमाग में घर कर गई हों, ये तस्वीरें मुझे तंग करती हैं। यह तस्वीर कब साफ होगी!


'फिर बेतलवा डाल पर' की तर्ज पर 'फिर बेचैन ‪#‎ट्रेन‬ में' कहना सही रहेगा। अब शाम रंगीन नहीं काली होनी शुरू हो गई है। हवा में ठण्ड है और ट्रेन में भीड़। बगल में बैठा परिवार अमृतसर से पटना जा रहा है। छठ के बाद! पूछने पर लड़के ने बताया कि ट्रेन में रिजर्वेशन नहीं मिला। बिना रिजर्वेशन के सबको लेकर कैसे जाता! उसके परिवार को देख लगा कि यह सही कह रहा है।
गोदी के बच्चे को नानी बिस्कुट खिला रही हैं। पांच साल की बच्ची ताली बजा कर गीत गा रही है और उछल-उछल कर गोदी वाले भाई को दुलार कर रही है। नानी से सटकर 8-9 साल का लड़का देख-देख मुस्कुरा रहा है। लड़के की पत्नी आराम से लेटी है। लड़का खिड़की के पास निश्चिन्त बैठा है।
अम्मा के होने के कितने फायदे हैं! सास होती तो शायद दृश्य बदल जाता। दादी सो रही होती और बच्चों को उसकी माँ ही खिला रही होती। आधुनिक समाज गाँव से लेकर शहर तक तेजी से बदल रहा है!


जौनपुर स्टेशन प्लेटफॉर्म नम्बर 5। दूर-दूर तक कोई नहीं है। सामने भोलेनाथ का मंदिर है, पीछे मस्जिद से अजान सुनाई पड़ रही है। लाउडस्पीकर अब बंद हुआ। रेलवे का एनाउंस सुनाई पड़ रहा है। एक पैसिंजर ट्रेन आने वाली है। मैं इससे जाना नहीं चाहता। मुझे गोंदिया एक्सप्रेस की प्रतीक्षा है जो 8.10 में आएगी। कल बस ने बोर किया था। आज ट्रेन पकड़ने का मूड है। गजब का सन्नाटा पसरा है। जैसे मौसम ने शराब पी रख्खी है! एक मच्छर काट रहा है गर्दन में, आ रही है पैसिंजर ट्रेन प्लेटफॉर्म नम्बर 1 पर।


खेतों की मिट्टी कुछ भुरभुरी हो गई दिखती है। कल शाम तेज़ हवा के बाद हुई थी हल्की-फुल्की बारिश। कुदाल उठाकर मिट्टी को अपने अनुकूल बनाते दिख रहे हैं ग्रामीण। बदरी के बाद धूप खिली है। हरे अरहर के पौधों में दिख रहे हैं पीले फूल। समाजवादियों पर चढ़ रहा हो जैसे केसरिया! ‪#‎ट्रेन‬ की पटरी के किनारे बने कच्चे-पक्के मकानों के बाहर बंधी दिखती हैं गायें, बकरियाँ और कीचड़ में भागते सूअर। परधानी चुनाव के झगड़े, खून के छीटों से रंगे अखबारों से इतर ट्रेन से देखने में शांत दिखते हैं पूर्वांचल के गाँव। ट्रेन के भीतर अमृतसर जाने वाले पंजाबी यात्री ऊंघ रहे हैं। हरे रंग में रंगे मटर को ताजी हरी मटर बता कर बेच रहा है लड़का। फिर दिख रही है बदरी। धूप छटपटा रही होगी खेतों में खेलने के लिए।

Devendra Kumar Pandey's photo.
बादल गरज रहे हैं। जितने गरज रहे हैं उतने बरस नहीं रहे। रिमझिम बारिश में भीगते हुए, असहिष्णुता का आरोप लगाते हुए हम स्टेशन तक पहुँच ही गये। फरक्का मिली। इठलाती-बलखाती आ ही गई। 5.30 घण्टे लेट। यह लेट नहीं होती तो कहाँ मिलती। किसी की मजबूरी कोई दूसरा फायदा उठाता है। हम भी चहकते हुए बैठ गए। अब चल दी। भीड़ नहीं है। बड़ी शांति है ‪#‎ट्रेन‬ में। मालदा टाउन बंगाल जाने वाले यात्री बंगाली में बतिया रहे हैं। सुबह अमृसर जाने वाले पंजाबी में बतिया रहे तो भी उनकी बातें कम ही समझ में आ रही थी
जफराबाद में कुछ और साथी चढ़े। Durgesh जी और Manish जी मिल गए। शरफुद्दीन 50 डाउन छोड़ कर इसमें बैठे हैं हम लोगों के लिए। Sanjayजी दुर्गेश जी का वीडियो बड़े ध्यान से सुन रहे हैं। गीत बज रहा है- बातों को तेरी हम भुला न सके..... । मनीष जी कान में तार ठूंस कर लेटे-लेटे कुछ और ही सुन रहे हैं। बाहर अँधेरा है। रिमझिम-रिमझिम बारिश वैसे ही हो रही है। घर पहुँचने से पहले सभी आनंद में डूबे हुए हैं।

सहयात्री खूब खुराफात करते हैं। नकली सिगार पकड़ा दिया और फ़ोटू खींच ली! इतने से नहीं माने तो फेसबुक में अपडेट करवा कर ही माने। smile emoticon

1 comment:

  1. लोहे के घर में कितने अनोखे अनुभव हो जाते हैं कभी कभी..शायद सदा ही बस उन्हें देखने वाली आप जैसे पैनी नजर चाहिए..अति रोचक पोस्ट..शुभ यात्रा !

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