20.12.15

जाड़े वाला प्यार


घने कोहरे से लड़कर
लाया हूँ
तुम्हारे लिए
एक मुठ्ठी
जाड़े की धूप
तुम अपनी मॉर्निंग
गुड कर लो।
चलता हूँ काम पर
आऊँगा शाम ढले
जेब में भरकर
मूँगफली
झोले में भरकर
आलू, छिम्मी, टमाटर, आदी, और….
हरी मिर्च भी
ठंड बढ़ रही है
हाँ!
याद आया
छत पर रख्खी तो हैं तुमने सहेजकर
आम की सूखी लकड़ियाँ
मंगा लेना
दूध वाले यादव जी के घर से
दो-चार सूखी गोहरी
जलाना बोरसी
सेकेंगे हाथ
हम सब
मिल बैठकर
तुम्हें पता है?
बहुत अच्छा बनाती हो तुम
छिम्मी भरे पराठे,
टमाटर की मीठी चटनी
और...
अदरक वाली चाय।
…........................
.....देवेन्द्र पाण्डेय।

19.12.15

बेटी

कैसी झूठी बात बताई पंडी जी!

कहते हो
घर की लक्ष्मी होती है बेटी
फिर कहते हो
पढ़ा लिखा कर
कन्या दान कर दो!

कुबेर तो
लड़के का बाप हुआ न?

कैसी झूठी बात बताई पंडी जी!

कहते हो
बेटा-बेटी एक समान
फिर कहते हो
बेटी तो पराया धन होती है
उसके घर का
पानी भी नहीं पीते!

अपना तो
लड़का ही हुआ न?

कैसी झूठी बात बताई (न्याय के मंदिर वाले) पंडी जी!

पढ़ लिख कर
होशियार हो गई थी मेरी बेटी
नौकरी करने गई थी
देश की रजधानी में
पापियों ने
बलात्कार कर दिया
मार दिया जान से
तुम कहते हो
नहीं होगी सजा
नाबालिग थे हत्यारे!

बलात्कार करने वाला बालिग ही हुआ न ?


जाओ!
हम तुम्हारी
कोई बात नहीं मानते।

16.12.15

गौरैया


जब से 
गायब हुई हैं गौरैया
मेरे शहर के घरों ने
सुबह-शाम चहकना
रात भर
गहरी नींद सोना 
छोड़ दिया है।

देर से उठना
दिन भर
धूल-धुएँ में जीना
जाम सड़क पर
एक हाथ नचाते हुए
दूसरे हाथ से
कान दबाकर
पागलों की तरह बड़बड़ाना
रात भर 
उल्लुओं की तरह जागना
शुरू कर दिया है।

जब से 
गायब हुईं हैं गौरैया
कम हुआ है
धरती का जल स्तर
मैली हुई हैं 
नदियाँ
गायब हो चुके हैं
जलाशय
मरने लगी हैं
तालाब की मछलियाँ।

कई वर्षों बाद
दूसरे शहरों से लौटकर
अजनबी की तरह
गली-गली भटकते
दुखी हो
मित्रों से पूछते
यहाँ के पुरनिये-
यार!
कहाँ चली गई
बनारस की गौरैया ?
साइबेरियन पंछियों के सामने
मुँह दिखाने लायक नहीं रहा
अपना शहर!

लोहे का घर-6

भोला चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी है। चतुर्थ श्रेणी माने शासन की वर्ण व्यवस्था में कर्मचारियों की सबसे कमजोर श्रेणी। सबसे पहले दफ्तर पहुंचना और सबके बाद जाना तो इसकी अनिवार्य जिम्मेदारी है ही मगर किस्मत फूटी और साहब के बंगले पर तैनाती हो गई तो फिर वो सभी काम करने होते हैं जो साहब, मैडम और छोटे साहब यानि साहब के बच्चे चाहें!
अभी जन्म हुआ है भोला का इस वर्ग में। मुश्किल से 6 मास की सेवा। सरकारी वर्ण व्यवस्था से सर्वथा अपरिचित। समाजवादी चिंतन, हरिश्चंद्र सी ईमानदारी, शर्मिला स्वभाव और रोज शाम को अपने घर भाग जाने की जल्दी! जिस कर्मचारी में इतने अवगुण हों उस कर्मचारी से कौन साहब खुश रह सकता है भला!
पता चला भोला की साहब के बंगले पर तैनाती हो गई। इसी का दुखड़ा रो रहा था ‪#‎ट्रेन‬ में। मैडम ने सब्जी लाने को कहा और पल्ले से भी कुछ रुपये खर्च हो गये। साहब ने किसी बात पर आँखें तरेरीं और जूते पॉलिश करने को कहा। जूता पॉलिश करने से इनकार करने और यह कहने पर कि यह मेरा काम नहीं साहब अत्यधिक नाराज हो गये और नियुक्ति की जांच करने, ट्रान्सफर कराने जैसी धमकी देने लगे।
ट्रेन के अत्यधिक विलम्ब से आने का दुःख भूल कुछ साथी भोला को घेर सम्वेदना प्रकट कर रहे थे और दुनियाँदारी की सीख देते हुए लगातार समझा रहे थे। तब तक बिहार जा रहा एक यात्री उचक कर सबकी बातों से सहमत होते हुये चहकने लगा-
'हम भी चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी थे। सब करना पड़ता है मगर इसमें लाभ ही लाभ है! नुक्सान का है? हम तो सौ रुपिया लेते थे और 50 रुपिया का सब्जी लाते थे! पूरा पचास रूपया धर लेते थे अपनी जेब में!!! बुझाया कि नहीं बुझाया? बरका हरिश्चंद्र बने हैं! सब करना पड़ता है। नौकरी करी तो ना न करी। अबहीं का, मैडम का कपड़ा भी फीचना पडेगा, बच्चों को स्कूल भी छोड़ना पडेगा, बरतन भी मांजना पडेगा अउर जो साहब कहेंगे सब करना पडेगा। मगर इसमें नुकसान का है? फ़ायदा ही फ़ायदा है। साहब खुश होगा तो परमोशन जल्दी हो जायेगा! हम आठ साल रहे साहब के बंगले पे। खूब मजा लुटे, हाँ मेहनत भी खूब किये। मेहनत करना पड़ता है। हरिश्चंद्र बनने से कुछ नहीं होगा। नौकरी भी चली जायेगी हाथ से! बुझाया कि नहीं????'
हम भी सबको सुन रहे थे और समझने का प्रयास कर रहे थे। भोला का दुखी मन कुछ हल्का हो रहा लग रहा था। एक ईमानदार चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी साथियों की मदद से व्यवस्था के अनुरूप ढलना सीख रहा था।
बनारस आउटर पर ट्रेन के आने की खबर ने मेरा ध्यान भंग किया और मैं जल्दी-जल्दी जूते के फीते बाँधने लगा।

12.12.15

लोहे का घर-5

आज ‪‎ट्रेन छूट गई। चाय पीने के चक्कर में छूटी, पान खाने के चक्कर में छूटी, मॉर्निंग वॉक में धमेख स्तूप का एक चक्कर अधिक लगाने के चक्कर में छूटी या श्रीमती जी के देर से नाश्ता देने के चक्कर में छूटी पर यह अब आइने की तरह साफ़ है कि मेरी 49अप छूट गई। वो जा रही है प्लेटफॉर्म नम्बर 5 से! दिख रही है अंतिम बोगी।
बाइक खड़ी कर जब दौड़ रहा था स्टेशन की ओर तभी दिमाग में यह ख़याल कौंध रहा था कि आज तो ट्रेन छूट गई! फिर भी एक उम्मीद में दौड़ रहा था कि भारतीय रेल है, 5-10 मिनट तो तब भी लेट छूटती है जब सही समय पर आती है तो भला आज कैसे सही समय पर छूट जायेगी! मगर हाय! जब मैं पुल पर चढ़ रहा तब वह अंगूठा दिखाते हुए रेंग रही थी। प्लेटफॉर्म पर पहुँचते-पहुँचते सतीश जी तरह दौड़ने लगी! मैं भी आख़िरी दम तक दौड़ रहा था कि शायद चलते-चलते रुक ही जाय! किसी और की भी छूट रही हो और कोई चेन पुलिंग ही कर दे! मगर हाय! फाइनली छूट ही गई। जब रुका तो एहसास हुआ कि अकेले मेरी ही नहीं छूटी थी, दो और रोज के यात्री दौड़ रहे थे, उनकी भी छूटी थी! उन्हें देख कुछ दुःख कम हुआ। अकेला मैं ही नहीं हूँ जिसकी ट्रेन छूटती है! दौड़ते-दौड़ते थक चुका था। बेंच पर बैठ गया। वे नहीं बैठे। वे फिर दौड़ने लगे! मैंने पूछा-अब काहे दौड़ रहे हैं? अब तो ट्रेन छूट ही गई! वे बोले-बस पकड़ने! मैंने कहा-नमस्कार!
बेंच पर बैठा रेल की पटरियों को देखने लगा। एक मालगाड़ी दायें से बायें गई। एक मालगाड़ी बायें से दायें गई। मालगाड़ी न हुई राजनैतिक पार्टियों की सदस्यता हुई ! इधर से उधर, उधर से इधर।
प्लेटफॉर्म पर साफ सफाई चकाचक है। प्रधान मंत्री जी का स्वच्छता अभियान झलक रहा है। लोग जागरूक हुए हैं। एक लड़की मूंगफली खा कर छिलके अपनी गोदी में ही रख रही है।
सन्नाटे के बाद प्लेटफॉर्म पर फिर भीड़ जुटने लगी। प्रसिद्द वैवाहिक लान में जैसे बिदाई के बाद सुबह सन्नाटा और दिन शुरू होते ही चहल-पहल शुरू हो जाती है वैसे ही प्लेटफॉर्म पर एक ट्रेन जाने के बाद सन्नाटा और दूसरी ट्रेन आने से पहले गहमा-गहमी बढ़ जाती है। जब बैठा था तो बेंच खाली थी। अब अगल-बगल अपरिचित यात्री आ कर बैठ चुके हैं। अपरिचित यात्रियों से बात नहीं करनी चाहिए, इस शिक्षा का असर दिखता है। ये मुझे लिखने में डिस्टर्ब नहीं कर रहे। एक भिक्षा का धंधा करने वाला ढोंगी व्योपारी आकर सामने दीन-हीन सूरत बना कर खड़ा हो गया। दूसरे से पैसे माँगा, मुझसे नहीं माँगा। देख कर संतोष हुआ। कम से कम भिखारी व्योपारियों के निगाह में रोज के यात्रियों की अलग ही इज्जत है!
घड़ी पर ध्यान टिका है। दूसरी ट्रेन 15 मिनट लेट है। कैसे-कैसे ख़याल आने लगे- मेरी वाली को ही सही समय पर जाने की जल्दी थी! इसकी तरह वो लेट नहीं हो सकती थी!!! अनाउंस हो रहा है-यात्रियों की असुविधा के लिए हमें खेद है। मैं क्या कहूँ! मैं तो सही समय वाली ट्रेन का छूटा हुआ यात्री हूँ।
..........
आज कोहरा रंग में है। सुबह मेरी हावड़ा-अमृतसर को उलझा दिया और शाम को तो गुम ही कर दिया। पता नहीं कहाँ है! गंगा सतलज आई कोहरे को चीरती, सीटी बजाती, गुनगुनाती -आजा! मेरी बोगी में बैठ जा। मैं लपक कर बैठ गया। बैठ कर सोचने लगा-आज का दिन ही खराब है। 10 मिनट पहले आता तो 5.30 में फरक्का मिल जाती। सभी साथी उसी से चले गये। अब तक तो वे घर भी पहुँच गये होंगे। यह आई भी तो देर से। अब चल भी रही है तो हंस की चाल। एक स्टेशन पर रुकती है तो देर तक रुकी रहती है। लगता है खड़ी हो कर फोन लगाती होगी अपनी सहेलियों को-हाय! फिफ्टी तुम कैसी हो? मैं जफराबाद आ गई, तुम कहाँ फंसी हो ? बहुत कोहरा है न! सम्भल कर चलना। इन यात्रियों की चीख-पुकार से तनिक न घबड़ाना। बोलना-पहुँचा रही हूँ न, यही क्या कम है! फिफ्टी डाउन बोल रही होगी-मैं तो वहाँ रात 12 बजे तक पहुंचुंगी। अभी सुलतानपुर में सो रही हूँ। मेरी फिकर न करो, मन करे तो एक नींद ले लो तुम भी। ये यात्री तो ऐसे होते ही हैं। अभी लड़-भिड़ जाओगी तो सब तुम्हें ही कोसेंगे।'
ट्रेन जफराबाद से आगे बढ़ रही है। यह अच्छी बात हुई कि फिफ्टी से बतिया कर संतुष्ट हो गई। कहीं किसी पैसिंजर ट्रेन से बतियाने लगती तब क्या होता! वो तो सुबह उठने की सलाह देती। बहुत चीख रही है। लगता है जलाल गंज का पुल आने वाला है। ऐसे चल रही है जैसे पहली बार कोई पुल पार कर रही हो!
बोगी में अजीब मुरदैनी छाई है। सामने साइड लोवर की बर्थ पर कोई कम्बल ओढ़े जोर-जोर से खर्राटे भर रहा है। ट्रेन का हारन और उस यात्री के खर्राटे अजीब सी संगत भिड़ा रहे हैं! एक यात्री कान में तार ठूंस कर मोबाइल में डूबा है। दो ऊँघ रहे हैं। बगल के साइड लोवर बर्थ पर बैठे यात्री ने अपनी पॉलिथीन से ठेकुआ टाइप का कुछ निकाल कर अभी-अभी मुँह में डाला है। चबाने की चप-चप सुनाई पड़ रही है। दूर आगे बच्चों की आवाज सुनाई पड़ रही है। अभी पीछे की बर्थ से किसी ने रोनी आवाज में अपने साथी से कहा है-बनारस पहुँचने में रात के 10 बजेंगे। खिड़कियों के शीशे बंद हैं। ट्रेन का हारन और रेल पटरी की खटर-पटर ही सुनाई पड़ रही है।
अभी खालिसपुर में रेंगती खड़ी हुई है। स्टेशन पर रोशनी के साथ घुले कोहरे को देख एहसास हो रहा है कि कोहरा घना है। यहाँ भी देर से रुकी है। एक ट्रेन धड़धड़ाते बगल से गुजरी है, मैं रुकी ट्रेन के यात्री की तरह तड़पा हूँ। कुछ बनारसी अब अपनी भाषा में चीखने लगे हैं। मतलब ट्रेन को गरियाने लगे हैं। ट्रेन पर इसका कोई असर नहीं। लगता है यह पीछे आ रही गोंदिया से बतिया रही है-आजा-आजा मैं तुझे पास दूँ! अब चल दी। गोंदिया ने पास लेने से इनकार किया होगा। कहा होगा-तू चल! मैं आई। अभी तो आधी दूरी तय हुई है। सही समय पर पहुंचाती तो मैं भी आज एक शादी का बराती होता! मूँगफली वाला गुज़रा है। भूख लग रही है। ठहरिये! मूंगफली तो खा लूँ, पता नहीं आज ये पहुँचे न पहुंचे! 


ट्रेन रुकी है। इसको रुकना नहीं था मगर रुकी है। चलना नहीं होगा तो चलेगी। सब कुछ सरकारी नियंत्रण में थोड़ी होता है! देश भगवान भरोसे भी चलता है।
अपनी तरक्की और ट्रेन के बीच गहरा साम्य है। कुछ भोले भाले लोग जो अपने देश की व्यवस्था से परिचित नहीं हैं, पूछते हैं-नौकरी करते-करते 28 साल हो गए आपकी तरक्की क्यों नहीं हुई ? कभी-कभी सोचता हूँ रेलवे स्टेशन वाला टेप सुना दूं-यात्रियों की असुविधा के लिए हमें खेद है! मतलब मेरी तरक्की न होने से जो आपको असुविधा हुई इसके लिए खेद है।
अरे! जितनी देश कि तरक्की हुई उतनी मेरी भी हुई। क्या मैं देश से अलग हूँ। साइकिल से मोटर साइकिल में आ गया। तार से दूर संचार में आ गया। मोबाइल चलाता हूँ, कम्पूटर चलाता हूँ, वाई-फाई चलाता हूँ, क्या कम है? देश ही कौन अमरीका बन गया?
आजादी से पहले बनारस से बलिया रेलवे लाइन सिंगल ट्रैक थी, आज भी है। नदी का पानी पीने लायक नहीं रहा तो पानी की बोतल खरीद ही लेता हूँ। जैसी तरक्की देश की वैसी अपनी। मैं देश से अलग थोड़े न हूँ।
मैं कोई सफल नेता तो हूँ नहीं की रातों रात आम से ख़ास बन जाउँ! और नेता से मेरी तुलना करना अच्छी बात नहीं । माता पिता ने पढ़ाया न होता, किसी कम्पटीशन में पास न होता और ट्रेन में चाय बेचता तो हो सकता है नेता बनने और तरक्की के बारे में सोचता। मेरी नहीं हुई तो मेरी तरह किसी दुसरे मेधावी छात्र की हुई? एकाध पायदान ऊपर उठकर अफसर हो गया होगा और क्या? उनकी पत्नी से जा कर पूछिए, यही जवाब मिलेगा- ये किसी काम के नहीं! अपनी कभी तरक्की नहीं हो सकती।
अब कोहरे की वजह से ट्रेन लेट हो जाय तो इसमें रेलवे का क्या दोष? यह एक वाजिब वजह है ट्रेन लेट होने की। बेवजह लेट हो सकती है तो फिर जब वजह सामने हो तो क्या शिकायत करना? 2 घण्टे का सफर 4 घण्टे में कटे लेकिन क्या रेलवे ने अधिक किराया माँगा? किसी होटल में 1 घंटा अधिक रुक कर देखिये! ये तो रुक-रुक कर दूर-राज्य के यात्रियों से बतियाने, उनकी भाषा सीखने और देश के हालात पर सामाजिक चिंतन करने का मुफ़्त अवसर उपलब्ध करा रही है। आप हैं कि बेवजह शिकायत पर शिकायत किये जा रहे हैं! 


घने कोहरे को चीरती अपनी ‪#‎ट्रेन‬ चली जा रही है। धनबाद लुधियाना (किसान) जो सुबह 5 के आस पास बनारस आती है 7 बजे आई। 49 अप लेट है। ‪#‎रोजकेयात्री‬ कोहरे में और सुबह घर से निकल पड़ते हैं। ट्रेन के अनुसार अपना शेड्यूल निर्धारित होता है। इस समय सभी ट्रेने लेट हो जाती हैं।
लोहे के घर की बंद शीशे की खिड़कियों से दूर-दूर तक कोहरे में डूबे खेत दिखाई दे रहे हैं। रोज के यात्री अपने-अपने अंदाज़ में समय बिता रहे हैं। आशुतोष अपना कल का रोना रो कर चुप हुए और अब मोबाइल में हनुमान चालीसा सुन रहे हैं। अशोक जी अपनी रात की नींद पूरी कर रहे हैं। दुर्गेश भाई मोबाइल में टीवी देख कर थके, अब सबको जगा रहे हैं। कोई अखबार पढ़ रहा है, कोई अपनी मोबाइल में फेसबुक अपडेट कर रहा है और कोई ऑफिस की योजना बना रहा है।
मनीष भाई अभी बाहर का नजारा ले कर आये हैं। जफराबाद के पास पहुँच चुकी है ट्रेन। अधिकतर लोग यहीं उतरते हैं। भूखे पेट भाग रहे रोज के यात्रियों की ऊर्जा देखते ही बनती है। कुछ लोग 3 किमी पैदल ही ऑफिस जाने की योजना बना रहे हैं। कोई कह रहा है-इतनी जल्दी क्या करेंगे ऑफिस जा कर? अभी तो चपरासी भी नहीं आया होगा!
शुभ दिन।

फर्क

जब कोई दूसरा रास्ता न हो...
आसान है
राह में झरे फूलों को देख हर्षित होना
और...
रौंदते हुए निकल जाना!
कठिन है
ठहरना,
झुकना,
पंजों के बल बैठ
एक-एक फूलों को
हौले-हौले चुनना
और उन्हें
दोनों हाथों से
अंजुरी-अंजुरी उठाकर
एक किनारे
माटी को सुपुर्द करने के बाद
आगे बढ़ना।
रौंद कर चले जांय या सहेज कर
आपकी मर्जी
फर्क
न फूलों पर पड़ेगा
न पौधों पर।

9.12.15

लोहे का घर-4

फेसबुक पोस्ट

Devendra Kumar Pandey
आज पता चला स्पेशल ट्रेन का कोई माई-बाप नहीं होता। पैसा भी अधिक लेते हैं और समय की कोई चिंता नहीं। सुबह आने वाली ट्रेन शाम को भी आ सकती है। सबसे बड़ी समस्या कि आप इसके लोकेशन को नेट पर ढूंढ नहीं सकते। सिर्फ स्टेशन पर खड़े हो अनाउंसमेंट सुनने के आलावा कोई चारा नहीं होता। कान खरगोश, नाक कुत्ता हो गया अपना। frown emoticon
Devendra Kumar Pandey's photo.
स्पेशल ट्रेन तो वाकई स्पेशल होती है। सुबह 6.30 में कानपूर से मुगलसराय आने वाली ट्रेन 10.30 तक नहीं आई तो पूछताछ काउंटर पर पूछा-भैया! मेरी स्पेशल ट्रेन है। पटना स्पेशल। अरे वही जहाँ नितीश जी फिर से मुख्य मंत्री बनने वाले हैं। कब आएगी? मेरे नेटवर्क पर तो कहीं दिखाई नहीं पड़ रही! पूछताछ काउंटर वाला बोला-आपके नहीं, मेरे नेट पर भी दिखाई नहीं दे रही है! सुबह 8 बजे चली थी अल्लाहाबाद से। कब आएगी और कब जायेगी कुछ पता नहीं। इसका कोई माई-बाप नहीं होता!!!
‪#‎हेप्रभु‬! मैं भी यही सोच रहा था! भाग कर पैसा वापसी काउंटर पर गया कि भैया मुझे कहीं नहीं जाना। मेरा पैसा वापस करो। साढ़े चार घंटे हो गए। काउंटर वाली मैडम ने लम्बी प्रक्रिया कराने के बाद बोला-टिकट तो कैंसिल हो जायेगा लेकिन वापसी रूपया शून्य बता रहा है कम्प्यूटर। नया नीयम आ गया है!
#हेप्रभु तू इतना बेईमान कैसे हो गया! स्पेशल ट्रेन के नाम पर डबल पैसा लिया, ट्रेन का पता नहीं और नहीं जाना चाहता तो पैसा वापसी के नाम पर ठेंगा दिखा दिया! बड़ा ठग व्योपारी है रे तू!



ट्रेन केंद्र की भले हो बिहार में सफर करते हुए ऐसा लगा कि हर सीट पर आम आदमी का कब्जा है। स्लीपर-जनरल एक समान। टी टी की अफसरी कोट के जेब में घुस जाती है। जनता एक दुसरे को बिठाने चढाने में भरपूर मानवीय सहयोग करती है। आपके पास बर्थ है तो राजा मत समझिये। आम आदमी के साथ आम आदमी बन शांति से यात्रा कीजिये। केला खाइये। बहुत सस्ता है 20 रूपया में 16। यह स्लीपर क्लास का डिब्बा है।
पापा ने मज़ाक में कहा ... 'यह मेरे बेटी नहीं है!' पाँच साल की बच्ची ने बिस्कुट खिड़की से बाहर फेंक कर माँ के आँचल में चेहरा छुपा लिया। बहुत देर बाद उसने अपनी गर्दन उठाई तो उसकी आँखों में कई मोती झिलमिला रहे थे। मैं बस डूब कर रह गया। मेरे हाथ में कैमरा था मगर तस्वीर नहीं खींच पाया। 2 दिन पहले ‪#‎ट्रेन‬ में देखी वो बिटिया याद आती है।

वे काफी वृद्ध थे। उनकी कमर और रीढ़ की हड्डी ऊपर से नीचे तक बेल्ट से कसी हुई थी। अपने से चल नहीं पा रहे थे । ‪#‎ट्रेन‬ में भयंकर भीड़ थी। जैसे तैसे उनके पुत्र ने उन्हे ट्रेन में चढ़ाया और सामने बर्थ के यात्री को अपना टिकट दिखा कर बोला-यह मेरी बर्थ है। बर्थ में सोया यात्री पहले तो झल्लाया फिर टिकट देख कर बोला-यह एस-5 है, आपकी बर्थ एस-3 में है!
अवाक पुत्र कभी पिता को देखता कभी अपने टिकट को। तब तक दूसरे यात्रियों ने टिकट देख कर कहा-घबड़ाइए मत हम आपके पिता जी को आपकी बर्थ तक पहुंचा देंगे तो उसकी जान में जान आई और देखते ही देखते दो चार यात्री वृद्ध को उठाकर, उनकी बर्थ पर लिटाकर हँसते हुए वापस आ गए ।
2 दिन पहले ट्रेन में देखी वह सहिष्णुता मुझे याद आती है।

पहले पहल ‪#‎ट्रेन‬ में छठ के मधुर गीत सुनाई पड़े तो खुशी से पलट कर आवाज को तलाशने लगा l वे दो महिलाएं थीं। हाथों में पीतल का सूप, सूप में ढेर सारे चिल्लर और दस के नोट! इन्हे देख अपने रोज के जौनपुर-बनारस मार्ग पर दिखने वाली महिला याद आ गई जो अपने साथ एक जवान लड़की को लिए यह कहते भीख मांगते प्रायः रोज दिख जाती है...'मेरी बेटी की शादी है, मदद साहेब!' फिर गीत के बोल से ध्यान हट गया। इसके बाद बिहार की लंबी यात्रा में कई ऐसे ही दृश्य दिखाई दिये। छठ के नाम पर पैसा मांगते मुस्टंडे भी दिखे और भोली भाली दिखने वाली महिलाएं भी। मेरे हाथ में कैमरा था। मुझे लगा ‪#‎ट्रेनमेंमांगनेवाले‬ बहुत हैं। मैं इनकी तस्वीरें खींचते-खींचते थक जाऊंगा फिर तस्वीर खींचने का विचार त्याग दिया।
कैमरे से खींची हो या दिमाग में घर कर गई हों, ये तस्वीरें मुझे तंग करती हैं। यह तस्वीर कब साफ होगी!


'फिर बेतलवा डाल पर' की तर्ज पर 'फिर बेचैन ‪#‎ट्रेन‬ में' कहना सही रहेगा। अब शाम रंगीन नहीं काली होनी शुरू हो गई है। हवा में ठण्ड है और ट्रेन में भीड़। बगल में बैठा परिवार अमृतसर से पटना जा रहा है। छठ के बाद! पूछने पर लड़के ने बताया कि ट्रेन में रिजर्वेशन नहीं मिला। बिना रिजर्वेशन के सबको लेकर कैसे जाता! उसके परिवार को देख लगा कि यह सही कह रहा है।
गोदी के बच्चे को नानी बिस्कुट खिला रही हैं। पांच साल की बच्ची ताली बजा कर गीत गा रही है और उछल-उछल कर गोदी वाले भाई को दुलार कर रही है। नानी से सटकर 8-9 साल का लड़का देख-देख मुस्कुरा रहा है। लड़के की पत्नी आराम से लेटी है। लड़का खिड़की के पास निश्चिन्त बैठा है।
अम्मा के होने के कितने फायदे हैं! सास होती तो शायद दृश्य बदल जाता। दादी सो रही होती और बच्चों को उसकी माँ ही खिला रही होती। आधुनिक समाज गाँव से लेकर शहर तक तेजी से बदल रहा है!


जौनपुर स्टेशन प्लेटफॉर्म नम्बर 5। दूर-दूर तक कोई नहीं है। सामने भोलेनाथ का मंदिर है, पीछे मस्जिद से अजान सुनाई पड़ रही है। लाउडस्पीकर अब बंद हुआ। रेलवे का एनाउंस सुनाई पड़ रहा है। एक पैसिंजर ट्रेन आने वाली है। मैं इससे जाना नहीं चाहता। मुझे गोंदिया एक्सप्रेस की प्रतीक्षा है जो 8.10 में आएगी। कल बस ने बोर किया था। आज ट्रेन पकड़ने का मूड है। गजब का सन्नाटा पसरा है। जैसे मौसम ने शराब पी रख्खी है! एक मच्छर काट रहा है गर्दन में, आ रही है पैसिंजर ट्रेन प्लेटफॉर्म नम्बर 1 पर।


खेतों की मिट्टी कुछ भुरभुरी हो गई दिखती है। कल शाम तेज़ हवा के बाद हुई थी हल्की-फुल्की बारिश। कुदाल उठाकर मिट्टी को अपने अनुकूल बनाते दिख रहे हैं ग्रामीण। बदरी के बाद धूप खिली है। हरे अरहर के पौधों में दिख रहे हैं पीले फूल। समाजवादियों पर चढ़ रहा हो जैसे केसरिया! ‪#‎ट्रेन‬ की पटरी के किनारे बने कच्चे-पक्के मकानों के बाहर बंधी दिखती हैं गायें, बकरियाँ और कीचड़ में भागते सूअर। परधानी चुनाव के झगड़े, खून के छीटों से रंगे अखबारों से इतर ट्रेन से देखने में शांत दिखते हैं पूर्वांचल के गाँव। ट्रेन के भीतर अमृतसर जाने वाले पंजाबी यात्री ऊंघ रहे हैं। हरे रंग में रंगे मटर को ताजी हरी मटर बता कर बेच रहा है लड़का। फिर दिख रही है बदरी। धूप छटपटा रही होगी खेतों में खेलने के लिए।

Devendra Kumar Pandey's photo.
बादल गरज रहे हैं। जितने गरज रहे हैं उतने बरस नहीं रहे। रिमझिम बारिश में भीगते हुए, असहिष्णुता का आरोप लगाते हुए हम स्टेशन तक पहुँच ही गये। फरक्का मिली। इठलाती-बलखाती आ ही गई। 5.30 घण्टे लेट। यह लेट नहीं होती तो कहाँ मिलती। किसी की मजबूरी कोई दूसरा फायदा उठाता है। हम भी चहकते हुए बैठ गए। अब चल दी। भीड़ नहीं है। बड़ी शांति है ‪#‎ट्रेन‬ में। मालदा टाउन बंगाल जाने वाले यात्री बंगाली में बतिया रहे हैं। सुबह अमृसर जाने वाले पंजाबी में बतिया रहे तो भी उनकी बातें कम ही समझ में आ रही थी
जफराबाद में कुछ और साथी चढ़े। Durgesh जी और Manish जी मिल गए। शरफुद्दीन 50 डाउन छोड़ कर इसमें बैठे हैं हम लोगों के लिए। Sanjayजी दुर्गेश जी का वीडियो बड़े ध्यान से सुन रहे हैं। गीत बज रहा है- बातों को तेरी हम भुला न सके..... । मनीष जी कान में तार ठूंस कर लेटे-लेटे कुछ और ही सुन रहे हैं। बाहर अँधेरा है। रिमझिम-रिमझिम बारिश वैसे ही हो रही है। घर पहुँचने से पहले सभी आनंद में डूबे हुए हैं।

सहयात्री खूब खुराफात करते हैं। नकली सिगार पकड़ा दिया और फ़ोटू खींच ली! इतने से नहीं माने तो फेसबुक में अपडेट करवा कर ही माने। smile emoticon

6.12.15

सुबह की बातें (गठरी वाले घुमक्कड़)


धमेख स्तूप सारनाथ वाले पार्क में प्रातः भ्रमण के समय हम हाथ फेंककर घूम रहे थे और कुछ लोग सर पर भारी बोझ लादे घूम रहे थे! मुझे आश्चर्य हुआ। एक को रोककर पूछा-भाई! आपलोग ये भारी बोझ सर पर लादे क्यों घूम रहे हैं? एक महिला ने जवाब दिया...'क्या करें? गेट पर हर एक का 10 रूपिया मांग रहा था!' मुझे लगा ये लोग तो आम आदमी से भी गरीब हैं! गरीब हो कर भी घूमने का शौक रखते हैं!!! फिर बोला-'अरे! तो सब सामान एक स्थान पर रख दीजिये। आपके साथ इतने आदमी हैं, किसी को सामान देखने के लिए लगा कर बाकी लोग आराम से घूम सकते हैं!!!' उन्होने मेरे बात सुनी अनसुनी कर दी और कन्नी काट कर आगे बढ़ गये। हमारे साथ मिर्जा भाई भी घूम रहे थे। हँसते हुए बोले- जाय दा मरदवा! ई तोहें बनारसी ठग समझत हउवन! इनके लग्गे जइबा त भागे-दौड़े लगीहें। तू इनहन का भलाई नाहीं करत हउआ, डरवावत हौआ! इनहने के अइसे मौज आवत हौ।' 

मिर्जा की बात सुनकर मैं सकपका गया-'का मिर्जा! हम तोहके बनारसी ठग लगत हई?' मिर्जा बोले-'त का तोहरे कपारे पे लिखल हौ कि तू बड़का ईमानदार हउआ?' फिर हिन्दी में समझाने लगे-'ये लोग नागपुर से आए सीधे-सादे तीर्थयात्री हैं। इन्होने सुन रख्खा होगा कि बनारसी ठग होते हैं। इसलिए ये अपना सामान कहीं रखना नहीं चाहते होंगे। सभी साथ होंगे तो कोई समान ले नहीं पाएगा। इसलिए ये घूमते हुए भी सामान सर पर ढो रहे हैं।' 

मिर्जा की बात मेरे समझ में आ गई लेकिन नजर इनके सामानों पर ठहर गई! हँसते हुये बोला-गठरी में बहुत माल हौ का मिर्जा?  मिर्जा ने ठहाका लगाया-'नीयत खराब हो गयल बाबा! गेट पर समान रख्खे बदे 10 रूपिया जेकरे पल्ले ना हौ, ऊ का माल धरी हो?  चला! चाय पियावा बहुत मगजमारी क लेहला।'

 और हम हंसते हुए माटी के कुल्हड़ में जाड़े की धूप पीने लगे।