29.7.16

लोहे का घर -17

June 10
लोहे के घर में आज एक सदस्य आया. नाम...जुबेर खान। बनारस से चढ़ा था और इसे मुजफ्फरनगर जाना था. इसके साथ इसका जीजा भी सफ़र कर रहा था जो इसे यहाँ ले आया था. यह एक कारीगर था जो आटा बनाने वाली फैक्टरी में छप्पर डालने के काम के सिलसिले में बिहार गया था और काम करने के दौरान छत से गिर जाने के कारण पैर की हड्डी टूट गई थी. वहां डाक्टरों ने बनारस ले जाने की सलाह दी. इसका जीजा मुजफ्फर नगर से सब काम छोड़-छाड़ कर भागा-भागा आया और इसे बनारस के एप्पेक्स हास्पिटल में २९मई को एडमिट कराया.८ जून तक इसका ईलाज चला और इसे डिस्चार्ज कर दिया गया. ईलाज इनकी उम्मीदों से इतना मंहगा पड़ा कि चुकाने के लिए पैसे पूरे नहीं पड़े. आपरेशन सहित कुल खर्च का बिल ६००००/- से अधिक का आया. पैसे जुटाने में इन्हें दो दिन और रुकना पड़ा. ८ के बदले १० जून को अस्पताल से मुक्त हो पाये.
सब ठीक था लेकिन इनको कष्ट इस बात का था कि ईलाज चाहे जितना भी मंहगा हो. वह उनका रेट था, उन्होंने लिया. दो दिन रुकने का रूम का किराया भी ले लिया, कोई बात नहीं. लेकिन दो दिन का नर्स का चार्ज, और भी दूसरे ईलाज का चार्ज क्यों लिया? यह तो वैसे ही हुआ कि होटल में रुकने का किराया लिया और साथ में उस भोजन का पैसा भी ले लिया जो मैंने खाया ही नहीं. आपके बनारस में तो लोग बाहरी लोगों को ऐसे ठगते हैं! इतना बड़ा अस्पताल और ऐसी हरकत! मेरे मुजफ्फर नजर में होता तो अपने भीे भी टांगों का ईलाज उनको कराना पड़ता. अब एक महीने बाद फिर बुलाया है. मैं तो नहीं आउंगा दुबारा कभी बनारस.
अब मैं क्या बोलता! दुखी आदमी अजनबी से झूठ क्यों बोलेगा भला? चुपचाप सुनता रहा और एक फोटू खींच ली टूटे टांग की. पता नहीं सच क्या है! अस्पताल वालों के बिलिंग सिस्टम को समझने में इन्हें धोखा हुआ है या अस्पताल का बिलिंग सिस्टम ही लोगों के साथ धोखा करता है! थोड़े वक्त का साथ. जुबेर खान अपने रस्ते, मैं अपने रस्ते. भगवान करे इसकी टांग ठीक हो जाय और इसे ईलाज के लिए दुबारा बनारस न आना पड़े.

June 13

लोहे का घर
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मेरे घर मे छक्के रहते
मेरे घर भिखमंगे

मेरे घर मे बूढे रहते
मेरे घर मे बच्चे।

सभी तरह के लोग यहाँ पर।
मेरे घर मे पानी मिलता
मेरे घर मे दाना
मेरे घर मे गरम पकौडे़ 
मेरे घर मे खाना।

चाय तो हरदम मिलता।
कोई काम नहीं करता है
बैठ के सब बतियाते
लेटे, सोते, बात-बात मे
भारत घूम के आते।

पटरी पर गाड़ी चलती है।
तुम चाहो तो
मेरे घर मे 
आ सकते हो
आभासी 
दुनियाँ मे भी 
जा सकते हो।

लोहे का 
घर है अपना
बहुत बड़ा है
पूरा देश
इसी के दम से
खूब जुड़ा है।
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हम घर जाने के लिए जितना मचल रहे थे, ‪#‎ट्रेन‬ उतना छल रही है। भंडारी स्टेशन के भोले बाबा का लिंग छू कर, घंटा हिलाकर, हमको अंधेरे में छोड़ कर लोग चले भी गये लेकिन‪#‎गोदिया‬ नहीं आई। ‪#‎किसान‬ के आने का संकेत हुआ, आई भी, हम दोड़कर बैठ भी गये लेकिन चली नहीं। ऐसा लगा जैसे कह रही हो-चलते-चलते थक गये, कितना चलेंगे! गोदिया के आने का भी संकेत हो गया। हमको लगा, पहले गोदिया ही जायेगी। उतरकर फिर प्लेटफार्म नं 1 से 5 पर पहुँचे। भोले बाबा अंधेरे में अकेले सो रहे थे। गोदिया भी आ गई। साइड लोअर की खाली बर्थ मिल गई, लेटे हैं आराम से। इतना लिख चुके मगर यह चल नहीं रही। लगता है मुझसे ज्यादा आराम से इस ट्रेन का इंजन सो रहा है। प्रभू जी सो गये तो फिर इंजन को काहे का डर! ‪#‎भक्त‬ भजन गा रहे होंगे-सुखी रहे संसार, दुखी रहे ना कोय! अब ट्रेन चले या न चले, अच्छे दिन आ कर ही रहेंगे।
अरे! ट्रेन चल दी!!! ट्रेन को पटरी पर रेंगते देख लोहे के घर के निवासियों को सहसा विश्वास नहीं हुआ। उन्होंने जल्दी-जल्दी मुण्डी घुमा घुमा कर दोनों तरफ देखा फिर खुशी से चिल्लाये-अपनी ट्रेन ही चली है! मुझे लगा, उनकी खुशी देख प्रभु जी भी नींद से जाग कर बोल रहे हैं-'अच्छे दिन आये कि नहीं आये? आये न! मन से भक्ति करो, सुख से रहो।'
क्या मस्त ठंडी हवा चल रही है! लगता है प्रभु जी की कृपा यूँ ही आती रही तो आज रात्रि 12 बजे तक घर पहुँच ही जायेंगे।
आज फिफ्टी मिल ही गई। मुझे लगा पूछेगी-कहाँ थे इतने दिन? मगर हाय! न पूछना न बात करना रुकने के बाद जोर से हारन बजाने लगी-बैठना हो तो बैठो वरना चली! पूरी लोहे की बनी है, ललमुँही। मरता क्या न करता, बैठ गया। हाड़-मांस वाली भाव नहीं देती, यह तो है ही काले इंजन वाली।
सूरज ढलने के बाद लोहे के घर का मौसम सुहाना है। हवा चल रही है। खिड़कियों से दिख रहे हैं सूखे खेत और भूखे चौपाये। नीम से मिल कर हँस रहा है पीपल। लड़के नही खड़े हैं आम के नीचे, पत्थर लेकर। टूट चुके हैं आम। शायद इसीलिए खामोश हैं। पगडंडियों पर साइकिल चलाते घरों को लौट रहे हैं ग्रामीण। लोहे के घर में शोर मचा रहे हैं चाय-मटर-पानी बेचने वाले। बंगाली में बतिया रहे हैं हावड़ जाने वाले। अपने में मशगूल हैं रोज के यात्री। डूब रहा है सूरज, जाते-जाते घर में झांक रही है गर्मी वाली धूप।
‪#‎ट्रेन‬ चल रही है। वैसे ही जैसे कल चल रही थी, वैसे ही जैसे परसों। बरसों से चल रही है ट्रेन। ट्रेन के साथ मैं भी चल रहा हूँ। मेरे साथ और भी हैं। सबका अपना-अपना ठहराव है, सबकी अपनी-अपनी मंजिल। मेरा न ठहराव न मंजिल। मेरे लिए ट्रेन लोहे का एक घर है जहाँ सुबह-शाम एक/डेढ़ घंटे के लिए रहना फिर उतर जाना है। एक भटकती आत्मा जो कभी इस, कभी उस जिस्म में पनाह पाती है। कुछ देर हंसती-बोलती फिर चुप हो जाती है। मैं कोई यात्री नहीं, दृष्टा हूँ असंख्य यात्राओं का। अक्षीसाक्षी हूँ सुख-दुख का। मेरे लिए हर दिन एक समान।
सामने बर्थ पर पूड़ी-सब्जी खाने के बाद, पति की निगरानी में बच्चे के साथ निश्चिंत सो रही महिला या बगल में बैठे यात्रियों की लम्बी बातचीत से बेखबर अंधेरे में पटरी पर दोड़ रही है अपनी ट्रेन।

आखिर आ ही गई फिफ्टी। प्रतीक्षा करते-करते जब मेरा मन पूरी तरह डाउन हो गया तब हारन बजाती आ ही गई फिफ्टी डाउन। बोगी में चढ़ते ही मन बम-बम हो गया। ऊपर-नीचे जिधर देखो उधर बोल बम। मुड़ी से मुड़ी सटाये, टांग से टांग भिड़ाये। कहीं चित्त लेटे हैं तो कहीं पट। कहीं बैठे-बैठे कर रहे खट पट, खट पट। सभी एक से बढ़कर एक। के केहू से का कम! बोल बम-बोल बम। इन्हें देख ऐसा लगता है कि हनुमान जी के नेतृत्व में सीता जी का पता लगाने वानरी सेना निकल पड़ी है। पानी भले न बरसे इन्हें देख अंग्रेज का बच्चा भी समझ जाता है कि सावन आ गया।
फिफ्टी अपने रंग में है। कछुए की तरह सो चुकी। हमें बिठाने के बाद खरगोश की तरह फुदक रही है। आगे लोअर बर्थ में बैठी कुछ महिलाएं हरा मटर खरीद कर खा रहीं हैं। एक हाथ से अखबार में मटर और दूसरे हाथ में लकड़ी का चम्मच। चहक-चहक कर खा रहीं हैं स्वाद से। बीच-बीच में तीखे दांतों से कट्ट से काटतीं हैं हरा मिर्च। उजाले में भी चमकते हैं सुफेद दांत।
हर स्टेशन पर रूकती है ‪#‎ट्रेन‬ और चढ़ते हैं बोल बम। अब सावन भर रोज के यात्रियों को नींद में भी बोल के सपने आते रहें तो कोई अचरज नहीं।
फिफ्टी डाउन में बोल बम की भीड़ आज भी है। वैसे भी आज सावन का पहला सोमवार है। रिजर्वेशन वाले परेशान हैं। एक तो रोज के यात्रियों की भीड़ ऊपर से बोल बम। राहत की बात यह कि मौसम सुहाना है। बारिश यहाँ नहीं हो रही लेकिन बनारस मे जोरदार होने की खबर है। धीरे-धीरे लोग एडजस्ट हो चुके। जिसे नीचे बर्थ में जगह नहीं मिली वह ऊपर चढ़ गया। इसी भीड़ में हरा मटर बेचने वाले भी बल्टा-झोला लिये घूम रहे हैं। इनका मटर हर मौसम में हरा रहता है। न मटर की कमी, न हरे रंग की और न खाने वालों की। इस समय तो पूरी धरती हरी-भरी है।
सुबह कैंट स्टेशन पर बोल बम की भीड़ में दिखे थे सांड़ और गैये। यह तो अच्छा है कि ‪#‎ट्रेन‬ के दरवाजे छोटे हैं वरना बोगी मे चढ़कर बर्थ में बैठ जाते बनारसी सांड़ तब क्या हाल होता यात्रियों का!


मनहूसियत सी छाई है लोहे के घर में। एक लड़का मोबाइल में शतरंज खेल रहा है बाकि सभी ऊंघ रहे हैं। बोगी में उजाला, बाहर अंधेरा है। उजाले में रहने वाले अंधेरे में खोये हैं। सामने बैठे लम्बी नाक वाले का चश्मा थोड़ा ढीला हुआ। चौंककर चश्मा सीधा किया, तनकर ऊँघने लगा! अधिक देर इस मुद्रा में नहीं ऊँघ पाया। गरदन पीछे बर्थ पर टिका दिया, शरीर को ढीला छोड़ दिया और आराम से ऊँघने लगा। ऐसे ही सभी कर रहे हैं। अलग-अलग अंदाज में ऊँघ रहे हैं। मगर सच्ची बात तो यह है कि कोई ऊँघ नहीं रहा, सभी बेचैन हैं। अपने-अपने अंधेरे में छटपटा रहे हैं। बाहर घनघोर अंधेरा है। पटरी पर चल रही है अपनी ‪#‎ट्रेन‬
july 28

सगरो धान बोआई गयल हौ। कत्तो-कत्तो अभहिन रोपात हौ। पानी में पूरा हल के, धोती कमर में लपेट के, निहुर-निहुर धान रोपत हइन मेहरारु। गीत गावत होइयें सावन क पर हमें सुनाई नाहीं देत हौ। टरेन से दिखाई देला, सुनाई नाहीं देत। जौन दिखाई देला ऊ ठीक से बुझाइयो नाहीं देत। जउन देखे में अच्छा लगsला ऊ करना मुश्किल हौ। धानी चादर ओढ़ मगन हइन धरती माई अउर उनके देख-देख मगन हौ हमरो जीया।
बहुत पागल हउअन ई देश में। चढ़ल हउअन यहू ‪#‎ट्रेन‬ में। बहसत हउअन आपस में। एक मिला दोजख अउर जन्नत समझा रहल हौ। अउर दू मिला पाप-पुन्य, सरग-नरक समझा रहल हउअन। सावन क महीना हौ, पानी बरसत हौ, सामने स्वर्ग जइसन सुंदर सीन हौ लेकिन इन्हहने के आपस में दोजख-जन्नत बहस करे में ढेर मजा आवत हौ! ई अइसन जीव हउअन कि इनहने के सच्चो स्वर्ग में छोड़ दिहल जाये त वोहू के नरक बना देइहें। फेर न मनबा! झूठ कहत हई ? कश्मीर के का कइलन? धरती क स्वर्ग हौ? नरक बना देहलन कि नाहीं?
ई भगवान क कृपा हौ कि पागल हउअन त प्रेमियो ढेर हउअन देश में। यही से गाड़ी चल रहल हौ पटरी पर।