19.2.17

लोहे का घर - 26

नींद से जाग कर/करवट बदल फिर सो गया/ लोहे के घर में/ खर्राटे भरता आदमी. भीड़ नहीं है ट्रेन में/ जौनपुर पहुँचने वाली है किसान. मजे-मजे में सुन रहे थे सभी रोज के यात्री उसके खर्राटे. तास खेलने वाले खर्राटे के सुर से सुर मिलाकर जोर से पटकते हैं अपने पत्ते..हूँssss!/ अखबार पढ़ने वाले सांस से सांस मिलाकर/ ऊंची-नीची करते अपनी गरदन/ मोबाइल में वीडियो देखने वालों पर छाने लगा है खर्राटे का नशा. वे भी सो गये टाँगे फैलाकर. वह अभी और खर्राटे भरता लेकिन जगा दिया अपने अजीब स्वर से वेंडरों ने...हरी मटर ईss/ मटर बोलो, मटर/ ताजा पानी, मैंगो जूस/ कॉफी, चाय, गुटका बोलोsss/ चईया! अभी और खर्राटे भरता मगर जाग कर सोचने लगा/ खर्राटे भरता हुआ आदमी. एक बात समझ में आई/ सुर से सुर मिलाने से अच्छा है अजीब आवाजें निकालना/ अजीब आवाजों से/ खर्राटे भरने वाला आदमी क्या/ नींद से जाग सकती है देश की सरकार भी!
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जिनका सफ़र लम्बा होता है वे ट्रेन में खर्राटे भरते हैं। जिनका जितना छोटा, वे उतने बेचैन। गोदिया नामक लोहे के इस घर में बेचैन भी हैं और खर्राटे भरने वाले भी। कुछ कम्बल ओढ़ कर खामोशी से लेटे हैं अपनी बर्थ पर, कुछ लेटे-लेटे चला रहे हैं मोबाइल में उँगलियाँ और कुछ तो इतने खामोश हैं कि हिलाने के बाद ही इनके होने का एहसास हो पायेगा।
रात के खर्राटे और सुबह के खर्राटे में बड़ा फर्क होता है। रात में कोई खर्राटे भरे तो लगता है यह उसका जन्म सिद्ध अधिकार है। सुबह-सुबह नहा-धो कर, दौड़ते-भागते ट्रेन पकड़े और सामने की बर्थ से लगातार जोर-शोर से खर्राटे की आवाज अनवरत आती रहे तब? तब आपका मन क्या करेगा? या तो आप भाग कर दूसरी बोगी में बैठ जायेंगे या खर्राटे भरने वाले के ऊपर अपनी बोतल का पानी छिड़कर जगा देंगे। क्या करेंगे यह आपकी ताकत और सहन शक्ति पर निर्भर करता है। 
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डबल बेड नहीं होता लोहे के घर में। लोअर बर्थ ही दिन में गप्प लड़ाने वालों की अड़ी, रात में सिंगल बेड बन जाती है। जव तक जगे हो चाहे जितना चोंच लड़ाओ मगर रात में सिंगल ही रहो। सिंगल बेड ही ठीक है लोहे के घर में। बे दर औ दीवार के कई घर साथ चलते हैं, डबल हो गया तो बवाल हो जायेगा!

मरूधर हवा से बातें कर रही है। यात्री आपस में खुशी का इजहार कर रहे हैं। रोज के यात्रियों को दफ्तर छोड़ने के बाद राइट टाइम पर मिली लेकिन अपने समय के अनुसार बहुत लेट है। समय के मामले में कितनों की किस्मत फूटी तब जा कर हम सौभग्यशाली बने। यही होता है। किस्मत का कटु सत्य यही है। किसी की अपने आप नहीं जगती। किसी की फूटती है तो किसी की जगती है। किस्मत से मिली खुशी मजा तो खूब देती है मगर श्रम अर्जित सुख वाला स्थाई भाव नहीं होता। आज है, कल गुम।

पीछे अड़ी जमी है। जोरदार बहस हो रही है। देश की चिंता हो रही है। शिक्षा के स्तर से लेकर चुनाव की बातें हो रही हैं। चुनाव ड्यूटी और निलंबन की बातें हो रही हैं। फुर्सत के समय लोहे के घर की अड़ी से बढ़िया कोई दूसरा स्थान नहीं होता देश की चिंता के लिये। जब कोई काम न कर पाओ तब देश की चिंता करो। नेता से लेकर अधिकारी तक की कमियाँ गिनाओ। खुद को छोड़ सब में झँकों। प्रचलित दूसरी अड़ियों की तरह लोहे के घर की अड़ी में देश की चिंता करने के लिए बढ़िया टॉनिक नहीं मिल पाता। चाय, पान, बीड़ी-सिगरेट, भांग या शराब नहीं मिल पाता। लोग होश में बहस करते हैं इसलिये जोर से शोर भले कर लें, आपस में हाथापाई नहीं करते। बहस गम्भीर हो जाए तो बात का रुख बदल कर देश की चिंता छोड़ अपनी चिंता करने लगते हैं। बात ठहाकों में समाप्त हो जाती है।

अभी सुबह शाम चकाचक ठंड है। बंद हैं लोहे के घर के शीशे। दिन में कड़क धूप है। जैकेट-मफ़लर उतरे, रात में छोड़नी, सुबह ढूँढ कर ओढ़नी पड़े रजाई तब समझो कि बसन्त आया। धूल उड़ाती बहने लगी हवा तब समझो बसन्त आया। अभी तो बसन्त का आउटर आया है। अपनी ट्रेन भी आउटर पर खड़ी है। बनारस घूमने आये एक विदेशी यात्री ने मुझसे हाथ मिलाकर 'थैंक यू' बोला और गेट पर जा कर खड़ा हो गया। किसी कन्या के हाथ की तरह कोमल था उसका हाथ! सोंच रहा हूँ उसने मुझे थैंक यू क्यों बोला? कहीं इसलिए तो नहीं कि मैं चुपचाप मोबाइल पर लिखता रहा और उसे डिस्टर्ब नहीं किया!
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गोदिया हवा से बातें कर रही है। शादी का मौसम है इसलिए भीड़-भाड़ है ट्रेन में। एक परिवार कई बच्चों के साथ जौनपुर में चढ़ा था। सभी बदहवास से थे। पुरुष बर्थ तलाश रहा था तो महिला सामान और बच्चों की गिनती कर रही थी। सामान की गिनती पूरी हुई तो बच्चों की शुरू हुई। अचानक से चीखने लगी-राहुल! राहुल! ...अरे! राहुल नहीं आया!!! ट्रेन चल दी, राहुल नहीं आया! भयाक्रांत महिला रुआंसी हो चुकी थी कि राहुल की आवाज आई-मम्मी! मैं यहाँ हूँ। अगले ही पल भय क्रोध में बदल गया-साथ क्यों नहीं रहता? राहुल हँसते हुए बोला-यहीं तो था! तब तक पुरुष ने पुरुषार्थ किया-बर्थ मिल गई, आगे है, चलो! सब चलो-चलो कहते हुए आगे बढ़ गये। उनके जाने के बाद आस-पास बैठे यात्री अपना-अपना विचार रखने लगे...घबराहट हो ही जाती है..कितना सामान था!..बच्चे भी बहुत थे..सामान मिलाने के बाद ही बच्चों पर ध्यान गया..आदमी के चिंता ना रहल, मेहरारू ढेर घबड़ा गयल..लोग बहुत जल्दी घबड़ा जाते हैं..।
गोदिया अभी भी हवा से बातें कर रही है। जौनपुर से बनारस नॉन स्टाप है। कोई स्टेशन आता है तो पटरियों से खट-पट करती है। कोई पुल आता है तो थर्रा देती है। कभी धीमें, कभी तेज मगर लगातार हवा से बातें कर रही है गोदिया। लोहे के घर के बाहर बहुत बड़ी दुनियाँ है। सफर में ही आसान लगती है जिंदगी। पड़ाव आया नहीं कि कई जरूरी काम याद आ जाते हैं। 

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