19.11.17

लोहे का घर-29

आज छठ की भीड़ है लोहे के घर में। साइड अपर में सामानों के बीच चढ़ कर बैठ गए हैं हम। सामने एक महिला ऊपर के बर्थ पर दो बच्चों को टिफिन में रखा दाना चुगा रही हैं। चूजे कभी इधर फुदकते हैं, कभी उधर। गिरने-गिरने को होते हैं कि मां हाथ बढ़ाकर संभाल लेती हैं। बगल के बर्थ में एक लड़का घोड़ा बेच कर सो रहा है। जफराबाद में ट्रेन रुकी, ८-१० और यात्री चढ़ कर बैठने का जुगाड तलाश रहे हैं। नीचे के दोनो बर्थ पर कोहराम है। छोटे-छोटे पांच बच्चे, दो महिलाएं और चार पुरुष आपस में गड्डमगड्ड हैं। खाना बेचने वाला भी खड़ा है, यात्रियों के साथ। आवाज़ लगा रहा है-'सब्जी-भात, डिम- भात, मछछी-भात।' डिंबा से डिम बना हो शायद! अंडा को डिम बोल रहा था हाकर। कोई-कोई खरीद भी रहे हैं। जो खरीद रहे हैं वे खा भी रहे हैं। बगल वाले अपर बर्थ में एक महिला अपने बच्चे को चम्मच से अंडा-भात खिला रही है। खिलाते खिलाते मैंगो जूस बेचने वाले हाकर को रोक कर पूछ रही है-ऐ! पानी है?
एक आदमी और चढ़ कर मेरे बगल में बैठ गया है। इसे मालदा टाउन जाना है। बता रहा है कि हम छठ वाले नहीं हैं, बी एस एफ में हैं। छठ वाले वे लोग हैं। इसी भीड़ भाड़ वाले कोहराम में लोग मनोरंजन भी कर रहे हैं। नीचे एक आदमी मोबाइल में वीडियो देख रहा है। बच्चे लगातार 'चिल्ल-पों' मचाए हैं। बड़े उनको संभालने में लगे हैं। डिम-भात खाने वाले बच्चे को पानी की बोतल मिल गई है। पीने के बाद वो उसी बोतल से खेल रहा है। किसी स्टेशन पर रुक गई है ट्रेन। कुछ घबरा कर पूछ रहे हैं-बनारस कब आएगा?

बहुत काम बटोरा गया है लोहे के घर में। फोटोग्राफी किया जाय, किताब पढ़ा जाय या लिखा जाय? आज तो एक और मुसीबत आ गई। साथी ने तीन फिलिम भेज दिया मेरे मोबाइल में। गोलमाल अगेन के लालच में दो और आ गई। एक जान और कितना सारा काम!
लोहे के घर की खिड़की से सुबह फोटोग्राफी संभव है, शाम को नहीं। शाम को अभी दूर दूर तक अंधेरे में डूबा खेत और साथ साथ चलता एक टुकड़ा चांद ही नजर आ रहा है। मेरे मोबाइल कैमरे से इसकी तस्वीर नहीं ली जा सकती। दूर कंकरीट के जंगल से छिटके जुगनू की तरह टिमटिमाते बल्ब दिख रहे हैं। लोहे की अप #ट्रेन वाली पटरी पीछे भाग रही है, दूर टिमटिमाते बल्ब आगे-आगे दौड़ रहे हैं, इंजन हारन बजा रहा है और ऊपर नील गगन में टंगा-टंगा चांद साथ चल रहा है। कुल मिलाकर ऐसा लग रहा है कि धरती नाच रही है और ऊपर से चांद मजा ले रहा है!
आज भीड़ नहीं है लोहे के घर में। यह सूरत जाने वाली ट्रेन है। बिहार जाने वाली होती तो #छठकी भीड़ दिखती। बड़ा शांत वातावरण है। चांद गगन से उतर कर बगल में आ बैठता तो मामला रोमांटिक होता। पूनम का न सही, एक टुकड़ा चांद तो होता अपने पास। अभी भी ऊपर आकाश में टंगा है, वैसे का वैसा। मंजिल आएगी तो मुझे कंकरीट के अंधेरे में छोड़ गुम हो जाएगा। मन करता है चलता रहूं यूं ही, जब तक चांद साथ है।

#ट्रेन बड़ी देर से रुकी है। यह फास्ट ट्रेन है लेकिन लोग कह रहे हैं पीछे सुपर फास्ट आने वाली है, उसी को पास देगी। अच्छा है अभी #बुलेट नहीं चलती। चलती होती तो उसे भी पास देती। ताकतवर अपने से कमजोर को ऐसे ही दबाते हैं।
लोग ऊब कर अजीबोगरीब हरकत कर रहे हैं। एक सज्जन यू ट्यूब में सचिन की बैटिंग देख रहे हैं, कुछ ऊंघ रहे हैं, कुछ ट्रेन से उतरकर प्लेटफार्म पर टहल रहे हैं। एक गुट मूंगफली फोड़ चुकने के बाद इंजन की तरफ देखते हुए हाथ मल रहा है। मेरे अलावा कोई रुकने की खुशी नहीं मना रहा! सब दुखी हैं। जो मंजिल की चिंता में सफर का आंनद न ले पाएं उन्हें चलना ही नहीं चाहिए।
अंडा-चावल, सब्जी-चावल, चना, चाय बेचने वाले आ जा रहे हैं। ऐसे बोर वातावरण में इनकी बिक्री बढ़ जाती है। साहेब जब अधिक बोर होने लगते हैं तो उनकी भूख अनायास बढ़ जाती है। कुछ नहीं तो मिनरल वाटर ही खरीद लेते हैं। मजदूर बोर हो ते हैं तो सुर्ती रगड़ने लगते हैं।
सुपर फास्ट के जाने के दस मिनट बाद अपनी फास्ट भी पटरी पर दौड़ने लगी है। आकाश में टंगा कार्तिक का चांद अब आधा हो गया है। जब पूरा होगा तब दिवाली होगी अपने शहर में। इधर गंगा के घाटों पर दीप जलेंगे, उधर उस पार रेती से निकलेगा कार्तिक पूर्णिमा का चांद। देव भी आएंगे दिवाली मनाने। अभी आधा है चांद। गगन में तारे नहीं दिख रहे, अकेला है। साथ चल रहे यात्रियों की तरह अकेला।
मन करता है आधे चांद से बातें करूं। पूछूं कि टुकड़े टुकड़े पूरे होने में क्या आंनद है? धीरे-धीरे छोटे होने में कितनी तकलीफ होती है? छोड़ो! नहीं पूछता। मूर्ख कहेगा और ज्ञान बघारेगा..हम कब अधूरे हैं रे पगले? तू हमेशा देख ही नहीं पाता मुझे पूरा!
किसी ने चेन पुलिंग की है। रो रो कर रुकी है ट्रेन। अब चुप हुई। सरकार की तरह जोर से हारन बजाएगी और फिर छुक छुक करती चल देगी पटरी पर। चलती गाड़ी की चेन कोई खीच ले तो इंजन हारन बजाने के सिवा और कर भी क्या सकता है? जनता की याददाश्त बड़ी कमजोर होती है। जितनी देर तकलीफ होती है रोती/चीखती है, फिर भूल जाती है। ट्रेन फिर चल दी। लोग फिर खुश हो गए।

लोहे के घर में शाम तो होती है पर हर खिड़की को चांद नसीब नहीं होता। बाहर अंधेरा अंधेरा और अंधेरे के सिवा दूर दूर टिमटिमाते बल्ब ही दिख रहे हैं। चांद दूसरी तरफ है।
रुकी है #ट्रेन। इस स्टेशन पर रुकना नहीं चाहिए था मगर रुक गई। यही क्या कम है कि स्टेशन पर ही रुकी है? बीच जंगल में भी रुक सकती थी। उस पार प्लेटफार्म पर एक मरकरी लाइट जल रही है। जिसके प्रकाश के नीचे दो लोग इत्मीनान से बैठ कर बीड़ी सुलगा रहे हैं। शेष सब अंधकार में डूबा हुआ। छोटा स्टेशन है। छोटे स्टेशन पर ऐसा ही होता है। ट्रेन के रुकने से यहां के लोकल वेंडरों की किस्मत खुल गई है। अंडा चावल बेच रहे हैं। अभी चढ़े कुछ एक यात्री बहुत खुश हैं...आहा! रुक गई तो पकड़ लिए! भीतर बैठे जो यात्री ट्रेन के अनावश्यक रुकने से दुखी थे वे उनके चेहरे की खुशी देख रहे हैं। दुखी और सुखी की निगाहें चार हुईं। ट्रेन चल दी फिर दोनो में प्यार हो गया! अभी चढ़े यात्रियों में से एक ने कहा.. हें हे हे ..न रुकती तो कैसे पाते? मेरे मन ने कहा.. धन्य है भारतीय रेल! बहुतों को दुखी करती है तो बहुतों को खुशी भी देती है। दुखी यात्री, खुश यात्रियों की खुशी सहन नहीं कर पाते।
ट्रेन फिर रुक गई। यहां भी रुकना नहीं चाहिए था। अब हमारे साथ वे भी दुखी हैं जो पिछले स्टेशन पर ट्रेन के रुकने से चढ़ कर खुश थे! एक दो दूसरे खुशकिस्मत यात्री यहां से भी चढ़े हैं। पता नहीं यह खुशी किस चिड़िया का नाम है? अभी यहां तो अभी वहां! एक ही सफर में कितने प्रकार के लोग यात्रा करते हैं! कभी कभी तो लगता है हाड़ मांस से बना यह शरीर भी लोहे के घर के समान है और बेचैन_आत्मा एक यात्री

ट्रेन लेट है। लेट होने की वजह से हम इस ट्रेन में हैं। राइट होती तो 3.45A.M. में चली जाती। अब 6 बजे चली है तो मिल गई। यह न मिलती तो दूसरी मिलती। इसके मिलने से थोड़ा आराम हो गया। रेलवे को धन्यवाद देना तो बनता है। डायरेक्ट #बनारस पहुंचाने वाली ट्रेन है मगर पूरी उम्मीद है कि हर स्टेशन पर रुकेगी और बहुत से यात्री रेलवे को धन्यवाद देंगे।
हिजड़ों का दल घुसा है बोगी में। खूब ताली पीट पीट कर पैसे ऐंठ रहा है। हमसे नहीं मांगेगा। कहता है..'ये रोज के यात्री हैं, #स्टाफ के है!' जो मर्दानगी से पैसे न दे उसे ये अपने स्टाफ का, मतलब #हिजड़ा समझते हैं!
ट्रेन हवा से बातें कर रही है। जब मस्त चाल से चलती है तो झूला झुलाती है। प्लेटफॉर्म पर नहीं रुकती, पटरियां बदलती है, तो लोहे के घर के यात्रियों के जिस्म हिल्लम- डुल्लम होते हैं। कोई तोंदू नहीं बैठा अपने आस पास वरना ऐसे में उसकी तोंद देखने का मजा आता।
तारीफ किया तो पटरी पर रेंगने लगी ट्रेन! तारीफ पा कर कौन नहीं इतराने लगता है? एक कविता अख़बार में छपने पर नौसिखिया अपने को कवि मान लेता है, प्रशंसा पा कर भ्रष्ट अधिकारी भी खुद को विक्रमादित्य समझने लगता है, यह तो ट्रेन है। ठुनक कर रुकी, फिर इंजन ने सीटी बजाई तो साथ-साथ चल दी।
पुल से गुजरी है ट्रेन। उसके थरथराने की आवाज गूंज रही है कानों में। हमेशा की तरह शांत थी नदी। मछलियों को भी शोर शराबे की आदत पड़ चुकी है। नदी हो या व्यवस्था छोटे मोटे थरथराहटों से तनिक भी नहीं घबराती। पुल ढह जाए या ट्रेन उलट जाए तो थोड़ी देर के लिए हलचल होती है नदी में। कुछ समय बाद गाड़ी फिर पुरानी पटरी पर चलने लगती है।
ट्रेन फिर रुकी। कुछ और यात्रियों को ट्रेन में चढ़ने का अवसर मिला। #रेलवे को फिर धन्यवाद मिला। विलम्ब के लिए खेद प्रकट करने पर कितना धन्यवाद मिलता है रेलवे को! रुकी ट्रेन में #वेंडर फिर आए। ठंडा पानी, मसाला चाट, मैंगो जूस। ये मैंगोजूस जाड़े में भी बिकता रहेगा क्या? लगता है लोगों के स्वभाव में ही नहीं टेस्ट में भी बहुत फ़र्क आ गया है। जाड़े में आइस्क्रीम और चाव से खाते हैं!
मोबाइल में सेक्सी गाना बज रहा है मगर लोग उदासीन भाव से सुन रहे हैं! पहले हिरोइन के सर से जरा सा आंचल सरक जाने पर पूरा बदन थरथराने लगता था, अब रश्के कमर ..मजा आ गया... सुनकर भी उदासीन! सही कहता है हिजड़ों का दल...ये स्टाफ के लोग हैं!

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